BSEB 12th Physics Top 15 Subjective Question 2024: यहाँ से देखें 2024 परीक्षा में पूछे जाने वाले सवाल… Bihar Board

BSEB 12th Physics Top 15 Subjective Question 2024: यहाँ से देखें 2024 परीक्षा में पूछे जाने वाले सवाल… Bihar Board

 

प्रश्न 1. चल कुण्डली गैल्वेनोमीटर में रेखीय चुम्बकीय क्षेत्र का क्या महत्व है ?
उत्तर-चल कुंडली या निलंबित कुंडली गैलवेनोमीटर का सिद्धांत यह है कि “जब किसी कुंडली को प्रबल एवं स्थायी चुंबकीय क्षेत्र में लटकाकर उसमें विद्युत-धारा प्रवाहित की जाती है तो विद्युत धारा और चुंबकीय क्षेत्र की पारस्परिक क्रिया के कारण कुंडली पर एक बलयुग्म कार्य करने लगता है जो कुंडली को घुमाकर चुंबकीय क्षेत्र के लंबवत् लाने की चेष्टा करता है ।” ऐसे क्षेत्र की विशेषता यह होती है कि कुंडली का तल अपनी प्रत्ये विक्षेपित स्थिति में संबद्ध चुंबकीय क्षेत्र की दिशा के समांतर रहता है ।

 

प्रश्न 2. साधारण काँच की अपेक्षा हीरे (diamond) का अपवर्तनांक (refractive index) बहुत अधिक होता है। हीरे को तराशने वालों के लिए इस तथ्य का कोई उपयोग है?

उत्तर- हाँ, इस तथ्य का प्रायोगिक उपयोग है। जैसा कि हम जानते हैं कि हीरे का अपवर्तनांक (2.42), साधारण काँच के अपवर्तनांक (लगभग 1.5) से बहुत अधिक होता है। इस कारण हीरे के लिए क्रांतिक कोण (critical angle) लगभग 24° होता है। अब यदि आपतन-कोण 24° और 90° के बीच हो, तो प्रकाश की किरणों का हीरे के अंदर अनेक सतहों से पूर्ण आंतरिक परावर्तन (total internal reflection) होने के बाद ही वे बाहर निर्गत होंगी यह चमकदार प्रभाव उत्पन्न करता है जिससे हीरा चमकीला प्रतीत होता है।

 

प्रश्न 3. गोलीय विपथन (spherical aberration) को कैसे कम किया जाता है?
उत्तर-लेंसों में गोलीय विपथन मुख्य रूप से लेंसों की वक्रता-त्रिज्याओं पर निर्भर करता है। गोलीय विपथन को कम करने के लिए उचित मान की वक्रता-त्रिज्या के लेंसों का चयन कर किया जा सकता है। फिर, लेंस के सामने डॉयफ्राम का उपयोग कर लेंस के द्वारक को कम करके भी इसे (गोलीय विपथन को) कम किया जा सकता है। द्वारक को कम करने से लेंस से होकर संकीर्ण किरणपुंज गुजर पाता है।

 

प्रश्न 4. क्षैतिज तरंगें क्यों नहीं ध्रुवित की जा सकती हैं ?
उत्तर- उन तरंगों को ध्रुवित किया जाता है जो एक निश्चित दिशा में गमन करती हुई तल के लम्बवत् होती है, परन्तु क्षैतिज तरंगें लम्बवत् नहीं गमन करती है, अतः इसका ध्रुवण नहीं किया जाता है ।

 

प्रश्न 5. संयुक्त सूक्ष्मदर्शी के अभिदृश्यक का द्वारक (aperture) छोटा क्यों होता है?
उत्तर- संयुक्त सूक्ष्मदर्शी का व्यवहार निकट स्थित सूक्ष्म आकार की वस्तु को देखने के लिए किया जाता है। यदि सूक्ष्मदर्शी के अभिदृश्यक का क्षारक बड़ा होगा, तो वस्तु से चलनेवाली प्रकाश-किरणें बड़े द्वारक में फैलेंगी, जिससे इसकी तीव्रता घट जाएगी। यदि अभिदृश्यक का द्वारक छोटा है तो वस्तु से चलनेवाली प्रकाश-किरणें छोटे द्वारक में फैलती है जिससे वस्तु अधिक प्रकाशयुक्त दिखाई पड़ती है। यही कारण है कि संयुक्त सूक्ष्मदर्शी के अभिदृश्यक का द्वारक छोटा रखा जाता है।

 

प्रश्न 6. किन कारणों से ट्रांसफॉर्मर की दक्षता घटती है ?
उत्तर-ट्रांसफॉर्मर में निम्नलिखित पाँच कारणों से ऊर्जा का हास होता है
1:फ्लक्स क्षय-प्राथमिक तथा द्वितीयक कुण्डलियों का युग्मन नहीं होता है और प्राथमिक कुण्डली में उत्पन्न चुम्बकीय फ्लक्स सभी द्वितीयक कुण्डली से संबद्ध नहीं होते हैं तथा कुछ क्रोड से न जाकर वायु होकर जाती है।
(ii) ताम्र क्षय- प्राथमिक तथा द्वितीयक कुण्डलियों में ताँबे के तार के लपेटों के प्रतिरोध के कारण जूल-ऊष्मा प्रभाव से कुछ विद्युतीय ऊर्जा का ताप ऊर्जा में परिवर्तन होता है जिससे शक्ति की क्षय होती है।
(iii) लौह क्षय-ट्रांसफॉर्मर के लोहे के क्रोड में भंवर-धाराओं के प्रेरण से भी ऊष्मा के रूप में शक्ति क्षय होती है, जिसे लौह क्षय कहते हैं। लोहे के क्रोड को परतदार बना देने पर लौह क्षय घटता है।
(iv) शैथिल्य क्षय-कुण्डलियों से प्रत्यावर्ती धाराओं के प्रवाहित होने से लोहे के क्रोड बार-बार चुम्बकित तथा अचुम्बकित होते हैं। इसलिए प्रत्येक चुम्बकन चक्र में कुछ ऊर्जा शैथिल्य के कारण क्षय होती है, जिसे शैथिल्य क्षय कहते हैं। इसे कम करने के लिए सिलिकॉन लोहे का क्रोड उपयुक्त होता है।
(v) भन्नाहट ध्वनि क्षय-प्रत्यावर्ती धारा के कारण ट्रांसफॉर्मर का क्रोड कम्पन शुरू करता है तथा भन्नाहट ध्वनि उत्पन्न होती है । इस प्रकार क्रोड द्वारा उत्पन्न भन्नाहट ध्वनि के रूप में कुछ विद्युत ऊर्जा का क्षय होता है, जिसे भन्नाहट ध्वनि क्षय कहते हैं ।

 

प्रश्न 7. समझाइए कि एक ही लेंस, नेत्रिका (eyepicce) के लिए उपयुक्त क्यों नहीं है?
उत्तर-नेत्रिका में वास्तव में दो लेंस रहते हैं। जो लेंस नेत्र (आँख) के निकट रहता है उसे नेत्र-लेंस (eye lens) तथा जो नेत्र से दूर रहता है उसे क्षेत्र-लेंस (field lens) कहा जाता है। नेत्रिका में दो लेंसों का उपयोग किया जाता है; इसके मुख्य कारण निम्नलिखित हैं-
(i) प्रकाशिक यंत्रों में, जिनमें नेत्रिका लगी रहती है, प्रतिबिंबों को देखने के लिए आँख को नेत्र-लेंस से सटाकर रखना पड़ता है। यदि नेत्र-लेंस का व्यास आँख की पुतली से बड़ा हो, तो लेंस के बाहरी भागों से अपवर्तित (refracted) किरणें आँख में प्रवेश नहीं कर पाती हैं। फलतः, दृष्टि-क्षेत्र (field of view) बहुत सीमित हो जाता है तथा प्रतिबिंब की तीव्रता घट जाती है। इस कठिनाई को दूर करने के लिए नेत्र-लेंस तथा वस्तु-लेंस (अभिदृश्यक) के बीच बड़े आकार (aperture) का एक लेंस, जिसे क्षेत्र-लेंस (field lens) कहा जाता है, का व्यवहार किया जाता है। नेत्र-लेंस और क्षेत्र-लेंस को मिलाकर नेत्रिका बनती है। बाहरी किनारों से आनेवाली किरणों को क्षेत्र-लेंस अभिसारित (converge) कर नेत्र-लेंस में भेजता है। फलस्वरूप, नेत्र-लेंस अब उन किरणों को भी प्राप्त कर लेता है, जो पहले उसकी कोर से बाहर निकल जाती थी। इस तरह, यंत्र का दृष्टि-क्षेत्र काफी बढ़ जाता है।
(ii) एक लेंस से बननेवाले प्रतिबिंब में गोलीय (spherical) तथा वर्ण-विपथन (chromatic aberration) से संबंधित दोष होते हैं। एक या एक से अधिक लेंसों के उचित संयोग का व्यवहार करने से ये दोष कम हो जाते हैं।

 

प्रश्न 8. प्रतिरोध-बक्स में लगी तार की कुंडलियाँ तार को दोहरा करके क्यों बनाई जाती है?
उत्तर- प्रतिरोध-बक्स में प्रत्येक प्लग के नीचे पीतल के गुटकों से प्रतिरोध-तार की कुंडली संबंधित रहती है। प्रतिरोध-तार को दोहरा करके एक अचालक पदार्थ के छोटे बेलन पर कुंडली के रूप में लपेटा जाता है। दोहरा कर लपेटा प्रतिरोध-तार प्रत्येक स्थान पर एक-दूसरे से विद्युतरोधित (insulated)
रहता है। तार को दोहरा कर देने से इससे बनी कुंडली में धारा प्रत्येक स्थान पर दो विपरीत दिशाओं में प्रवाहित होती है जिस कारण कुंडली से संबद्ध (linked) चुंबकीय फ्लक्स का मान हमेशा शून्य होता है। इससे कुंडली के स्वप्रेरण (self-induction) का प्रभाव शून्य होता है। इस प्रकार, दोहरे तार की बनी कुंडली के रहने से परिपथ में प्रेरित धारा उत्पन्न नहीं होती।

 

प्रश्न 9. विभवमापी एवं वोल्टमीटर दोनों का व्यवहार विभवांतर मापने के लिए किया जाता है। एक ही काम के लिए इस प्रकार के दो यंत्रों की आवश्यकता क्यों है?
उत्तर-वोल्टमीटर से जब किसी परिपथ के दो बिन्दुओं के बीच विभवांतर मापा जाता है तो इससे भी अल्प-धारा प्रवाहित होती है जिससे मुख्य परिपथ को धारा में कुछ कमी हो जाती है। इसके फलस्वरूप उन दो बिंदुओं के बीच विभवांतर कुछ कम हो जाता है। सेल का विद्युत-वाहक बल खुले परिपथ में इसकी प्लेटों के बीच का विभवांतर होता है। सेल के सिरों पर वोल्टमीटर लगा देने पर इससे कुछ धारा प्रवाहित होती है और सेल का कुछ आंतरिक प्रतिरोध होने से यह सेल के विभव को कुछ कम करता है। अतः, वोल्टमीटर द्वारा मापा गया विभवांतर या सेल का विद्युत-वाहक बल यथार्थ नहीं होता है। परन्तु, विभवमापी (potentiometer) की संतुलन-विधि में सेल से कोई धारा प्रवाहित नहीं होती। अतः, विभवमापी विभवांतर या सेल के विद्युत-वाहक बल का यथार्थ मान देता है। इसके अतिरिक्त चूँकि विभवमापी की विधि शून्य-विक्षेप विधि (null deflection method) है, अत: इससे प्रयोग में विक्षेप-संबंधी कोई त्रुटि नहीं हो पाती है।

 

प्रश्न 10. विद्युत द्विध्रुव-आघूर्ण को परिभाषित करें तथा इसका SI मात्रक लिखें।
उत्तर विद्युत द्विध्रुव के किसी एक आवेश तथा दोनों आवेशों के बीच की दूरी के गुणनफल को विद्युत द्विध्रुव का आघूर्ण p कहते हैं । इसका S.I. मात्रक कूलॉम x मीटर होता है ।

 

11. समानांतर प्लेट संधारित्र में दूसरे प्लेट का क्या कार्य है ?
उत्तर – समानांतर प्लेट संधारित्र में दूसरा प्लेट आकार को स्थिर रखते हुए यह पहली प्लेट के विभव को कम कर देती है, अतः उसी विभव पर अधि क आवेश सचित हो जाता है।

 

प्रश्न 12. शंट के दो उपयोग लिखें ।
उत्तर-शंट के दो उपयोग निम्नलिखित हैं-
(i) इसके उपयोग से सुग्राही विद्युत् धारामापी या गैल्वेनोमीटर को नुकसान से बचाया जाता है।
(ii) शंट के उपयोग से धारा को विभक्त किया जाता है तथा शंट के मान को बदलकर धारामापी के परास को बढ़ाया जा सकता है।

 

प्रश्न 13. तप्त तार यंत्र का व्यवहार प्रत्यावर्ती धारा तथा सरल धारा दोनों के मान निकालने में किया जाता है, क्यों?

उत्तर-धारा के ऊष्मीय प्रभाव का उपयोग कर तप्त तार यंत्र अर्थात् तप्त तार ऐमीटर तथा तप्त तार वोल्टमीटर बनाए जाते हैं। इनमें एक तार इस प्रकार व्यवस्थित रहता है कि जब इन यंत्रों से विद्युत धारा प्रवाहित की जाती है तब तार गर्म होकर लंबाई में बढ़ जाता है जिससे इससे जुड़ा सूचक (pointer) स्केल पर विक्षेपित होकर धारा और विभवांतर का पाठ्यांक देता है। उत्पन्न ऊष्मा धारा के वर्ग के समानुपाती (W oc 2) होती है। इसलिए तार की लंबाई में वृद्धि भी धारा के वर्ग के समानुपाती होती है जिस कारण यह वृद्धि धारा के प्रवाह की दिशा पर निर्भर नहीं करती। प्रत्यावर्ती धारा में धारा की दिशा एक निश्चित समयांतराल पर बदलती रहती है, परंतु तार में उत्पन्न ऊष्मा धारा के परिमाण पर निर्भर करती है, न कि उसकी दिशा पर। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि तप्त तार ऐमीटर और वोल्टमीटर प्रत्यावर्ती धारा मापने और प्रत्यावर्ती विद्युत वाहक बल मापने के लिए व्यवहार में लाए जा सकते हैं। इससे यह भी स्पष्ट है कि तप्त तार यंत्रों (ऐमीटर तथा वोल्टमीटर) का व्यवहार सरल धारा (direct current) मापने के लिए भी किया जा सकता है।

BSEB 12th Physics Top 15 Subjective Question 2024
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प्रश्न14. किसी ट्रांसफॉर्मर का क्रोड पट्टियों में विभक्त क्या अथवा, समझाइए कि ट्रांसफॉर्मर का आंतरक परतदार क्यों होता है।
उत्तर ट्रांसफॉर्मर के लोहे के क्रोड (आंतरिक) में फ्लक्स-परिवर्तन के कारण भँवर-धाराएँ (eddy currents) उत्पन्न हो जाती हैं जिनके कारण लोहे
का क्रोड गर्म हो जाता है। इस प्रकार विद्युत-ऊर्जा का ऊष्मा के रूप में क्षय होता है-इसे लौह क्षय (iron loss) कहा जाता है। इस हानि को कम करने के लिए क्रोड को एक-दूसरी से विद्युतरोधित लोहे की पट्टियों द्वारा परतदार निय (laminated) बनाया जाता है और क्रोड को परतदार कहा जाता है। ऐसा करने से पट्टियों के बीच उच्च प्रतिरोध होने के कारण उसमें से कोई भँवर-धार bin प्रवाहित नहीं होती जिससे लौह क्षय घट जाता है। यही कारण है कि क्रोड को परतदार बनाया जाता है।

 

प्रश्न 2. संचार प्रणाली में संचरण के लिए प्रयुक्त तीन विधाओं का उल्लेख कीजिए ।
उत्तर- संचार प्रणाली में संचरण के लिए प्रयुक्त तीन विभिन्न माध्यम :
(a) भू-तरंग संचरण (Ground Wave Propagation) तरंग संचरण की इस प्रक्रिया में रेडियो तरंगें पृथ्वी के पृष्ठ के अनुदिश गमन करती हैं। इन तरंगों को भू-तरंगें कहते हैं। इस प्रक्रिया में प्रेषित तथा ग्राही के एण्टीना पृथ्वी के निकट होने चाहिए। पृथ्वी के पृष्ठ की चालकता तथा विद्युत्शीलता के कारण रेडियो तरंगों के संचरण के साथ-साथ इनकी ऊर्जा में कमी आती रहती है। रेडियो तरंगों की आवृत्ति में वृद्धि के साथ-साथ ऊर्जा के मान में कमी अधिक हो जाती है । इसी कारण भूतरंग संचरण 1.5 MHz आवृत्ति से नीचे तक ही सीमित रहता है । अतः इस विधि द्वारा केवल 1.5 MHz से कम

आवृत्ति की रेडियो तरंगों का ही संचरण किया जा सकता है । भूतरंग संचरण का प्रयोग अल्प दूरी तक संचरण में ही सीमित है। इस संचारण में विकिरणों के दुर्बल होने का अन्य कारण पृष्ठ तरंगों का विवर्तन भी है । इसके कारण ही पृष्ठ तरंगों के आगे बढ़ने के साथ-साथ झुकाव कोण भी बढ़ता जाता है। कुछ दूरी तय करने पर तरंग नीचे आ जाती है अर्थात् समाप्त हो जाती है ।
(b) व्योम तरंग संचरण (Sky Wave Propagation)—वे रेडियो तरंगें जो आयन मण्डल से परावर्तित हो जाती हैं, आकाश (व्योम) तरंगें कहलाती हैं। इस प्रकार के संचरण में रेडियो तरंगों को प्रेषित से जुड़े एण्टीना द्वारा आयन मण्डल की ओर प्रेषित किया जाता है। 2 MHz से 10MHz आवृत्ति परास की रेडियो तरंगों को आयन मण्डल द्वारा पुनः परावर्तित कर दिया जाता है। इस संचारण प्रक्रिया में पृथ्वी की सतह तथा आयन मण्डल से रेडियो तरंगों के क्रमागत परावर्तनों के कारण ही इन तरंगों को एक स्थान से दूसरे स्थान तक प्रेषित करना सम्भव है । 10 MHz से अधिक आवृत्ति की रेडियो तरंगें आयन मण्डल को पार कर जाती हैं तथा पुनः पृथ्वी पर परावर्तित नहीं होती । अतः इन तरंगों को इस विधि द्वारा संचरित नहीं किया जा सकता ।

(c) अंतरिक्ष तरंग संचरण (Space Wave Propagation) अति उच्च आवृत्ति (VHF), परा उच्च आवृत्ति (UHF) तथा सूक्ष्म तरंगों का संचरण भूतरंगों तथा व्योम तरंगों के द्वारा सम्भव नहीं है, क्योंकि पृथ्वी की सतह पर बहुत कम दूरी तय करने पर ही इस आवृत्ति की तरंगों का लगभग पूर्णत: अवशोषण हो जाता है । इसके साथ-साथ उच्च आवृत्ति की तरंगों के लिए आयन मण्डल द्वारा पारगमन होता है जिससे ये पुनः परावर्तित नहीं की जा सकतीं ।

 

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